एंटीबायोटिक्स : अंधाधुंध प्रयोग के दुष्परिणाम

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एंटीबायोटिक्स : अंधाधुंध प्रयोग के दुष्परिणाम

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Author: डॉ.स्वास्तिक जैन, चिकित्सा अधिकारी, आयुष विभाग उत्तराखंड शासन )

एंटीबायोटिक्स की खोज

७० वर्ष पहले जब Alexander Fleming ने अपनी प्रयोगशाला में अत्यंत सूक्ष्म पर बहुत ही शक्तिशाली जीवों की खोज करी थी जिसे एंटीबायोटिक्स कहा गया. तब से लेकर आज तक इस छोटे से जीव ने चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में एक नए युग कि शुरुआत कर दी है. उस समय इनकी खोज से यह खा जाने लगा था कि एंटीबायोटिक्स की खोज ने मानव की जीवाणुओं द्वारा फैलाई जा रही बीमारियों से युद्ध में अब विजय पा ली है. लेकिन उस समय की भविष्यवाणी आज तक सच साबित नहीं हुई है और हम सब दिन प्रतिदिन नए जीवाणुओं द्वारा बीमारियों का ग्रास बनते जा रहे है. यह सच है कि कुछ बीमारियों से मुक्ति मिल गयी है; परन्तु यह भी अटल सत्य है कि उनसे भी भयानक सैकड़ों नयी बीमारियाँ इस विश्व में करोड़ों लोगों को लग चुकी हैं.

आज की परिस्थिति

१.लेकिन हम बात कर रहे हैं एक और ही खतरनाक पहलू की और वो है इन जीवाणुओं का एंटीबायोटिक्स के प्रति resistant हो जाना. मतलब पहले के जीवाणु एंटीबायोटिक्स से समाप्त हो जाते थे लेकिन इतने वर्षों में इनके अनाप शनाप प्रयोग से जीवाणुओं के शरीर में इनके प्रति एक प्रतिरोध बन गया है जिससे अब ये एंटीबायोटिक्स काम नहीं कर रहे हैं.

२.उद्दहरण के लिए ७० साल पहले streptococcus नामक बक्टीरिया penicillin के प्रयोग से समाप्त हो जाता था और ऐसे ही ९५ % बक्टीरिया penicillin से नष्ट हो जाते थे; पर आज हालत यह है कि आज ९५ % बक्टीरिया पर penicillin का कोई असर नहीं होता है क्योंकि उन्होंने अपने शरीर में इससे लड़ने की क्षमता विकसित कर ली है.

इनके अंधाधुंध प्रयोग के भयानक परिणाम

sup2.jpg१.इस तथ्य की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 28th February 2001 को Royal College of Physicians of London ने Anti-microbial Resistance के चिकित्सकीय पहलुओं पर विचार विमर्श करने के लिए मीटिंग करी थी. ऐसा माना जाता है कि हर देश में लगभग १५००० रोगी ऐसे बक्टीरियाओं के कारण मर जाते हैं जिसका कोई एंटीबायोटिक्स इलाज़ उपलब्ध नहीं है. ऐसे ही resistant बक्टीरिया को सुपर बग कहते हैं. दुःख कि बात यह है कि इन सुपर बग से लड़ने के लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के पास आज भी कोई दवा नहीं हैं.

 

२.कुछ समय पहले इंग्लैंड के  Portsmouth Hospital के operating theatres को कुछ समय के लिए बंद कर देना पड़ा था क्योंकि वहाँ पर सुपर बग पाए गए थे. Queen Alexandra Hospital में orthopaedic surgeon अपना कोई भी operation नहीं कर पाए थे क्योंकि वहाँ भी सुपर बग पाया गया था.

 

३.आम तौर पर पश्चिमी देशों की सोच होती है कि इस टाइप की बीमारियाँ भारत या अफ्रीका सरीखे जगहों पर ही होती हैं. लेकिन इन घटनाओं ने इन सब देशों के होश उड़ा दिए हैं. एक प्रमुख पुस्तक Betrayal of Trust: The Collapse of Global Public Health, में USA की Laurie Garrett ने बताया है कि इस तरह की घटनाओं कि भारत या अफ्रीका जैसी जगहों में नहीं बल्कि पश्चिमी देशों में होने की ज़्यादा संभावनाएं हैं. ऐसा इसलिए संभव हो रहा है क्योंकि वहाँ के डाक्टरों ने antibiotics का इतना अधिक प्रयोग किया है कि अब अधिकाँश बक्टीरिया resistant होते जा रहे हैं.

 

४.अध्ययनों से पता चलता है कि अमीर बच्चों के कान में संक्रमण और अन्य आम संक्रमण मध्य वर्गीय बच्चों से ज़्यादा पाए जाते हैं. चूँकि एंटीबायोटिक दवा बहुत महंगी हैं इसलिए गरीब माता – पिता अपने बच्चों को मामूली बीमारियों के लिए एंटीबायोटिक दवाओं देने के लिए कोशिश नहीं करते हैं. एंटीबायोटिक नहीं लेने से शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली की मदद होती है और यह संक्रमण से लड़ने के लिए बच्चे को तैयार करता है; जिससे उसके शरीर में संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने लगती है.

एंटीबायोटिक दवाओं के अन्य खतरे

ant7.jpg१.एंटीबायोटिक दवाओं के अन्य खतरे खेती और डेयरी उद्योग में हैं. Broiler sheds में बहुत अधिक मात्रा में एंटीबायोटिक का इस उम्मीद से उपयोग हो रहा है कि यह उन्हें इन्फेशन से बचायेगा. जानवरों के फार्म में उन्हें इतना एंटीबायोटिक दिया जाता है जो कि hospitals और operation theatres में दिए गए antibiotics से भी ज़्यादा होता है.
२.आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आजकल अंडे से पूरा पक्षी बनने में केवल ६ हफ्ते ही लगते हैं जो कि सामान्य से लगभग आधा समय है. ये कैसे होता है ? ये सिर्फ उन्हें दिए गए केमिकल्स द्वारा ही सम्भव हो रहा है. इस तरह मुर्गी पालक या जानवर पालक उन्हें जल्दी बड़ा करके अपना मुनाफ़ा दुगना कर रहे हैं और हम इन्हीं जानवरों के मांस में antibiotics रुपी केमिकलों और धीमे ज़हर को खा कर धीरे धीरे जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में आ रहे हैं.

rbgh-cow.jpg३.गायों में कान पकने की समस्या काफी कॉमन है. दूध देने वाली लगभग १० % गायों को ये समस्या हरदम पायी ही जाती है. इसके इलाज के लिए जानवर पालक उन्हें ciprofloxacin की डोज़ देते हैं. ऐसा करने पर सामान्य लोगों के लिए इस गाय का दूध १० दिनों तक पीने योग्य नहीं रहता है.
४.लेकिन क्या वास्तव में १० दिन तक किसी गाय का दूध कोई भी दूध का व्यवसायी नहीं निकालता है ? ज़रा अपने आसपास् किसी भी दूध व्यवसायी से पूछिए. आपको जानकर बहुत आश्चर्य और दुःख होगा कि ये सारा दूध बिना रोकटोक डेयरियों में बेचा जाता है और यही ज़हर हम आज पी रहे हैं जिसकी परिणिति असाध्य बीमारियाँ और लीवर / किडनी फैल्यर के रूप में सामने आ रही हैं.
५.लोग कहते हैं कि हमें यह बीमारी क्यों हुई? हम तो बहुत शूद्ध दूध पीते हैं, शुद्ध सब्जी खाते है. लोग दरअसल शुद्ध दूध के रूप में antibiotics और केमिकल मिला ज़हर पी रहे हैं इसलिए बीमारियाँ हो रही हैं.

इस विषय पर मेरे अनुभव व विचार

१.एक चिकित्सक के रूप में देखा जाय तो मेरा मानना है कि डॉक्टर और कंपनियों के साथ साथ कुछ दोष मरीजों का भी है जो यह सोचते हैं कि छोटी छोटी बीमारियों में हाई पॉवर का एंटीबायोटिक लेने पर जल्दी ठीक हो जायेंगे. मेडिकल स्टोर पर जाकर शायद आपमें से बहुत पाठकों (सभी नहीं)  ने भी जल्दी असर करने वाली दवाई खरीदकर खायी होगी; और सोचा होगा कि चलो डॉक्टरों कि फीस तो बची ! मरीजों के इसी गलत निर्णय से ही उनके शरीर में उपस्थित बक्टीरिया resistant होते जा रहे हैं.

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२.भारत में यह भी देखने में आ रहा है कि जो डॉक्टर एंटीबायोटिक्स नहीं लिखते हैं वो ज़्यादा सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि मरीजों में यह धारणा बन जाती है कि जिसकी दवा से जल्दी ठीक हो रहे हैं वो अच्छा डॉक्टर है (चाहे उस दवा में हाई पॉवर का एंटीबायोटिक्स ही क्यों न हो जिससे उनकी बीमारी का बक्टीरिया और ताकतवर हो जाए).

 

३.ऐसा देखने में आ रहा है कि मेरा मरीज़ किसी और डॉक्टर के पास इलाज़ के लिए नहीं चला जाये यह सोच कर कुछ डॉक्टर भी (सभी नहीं) उन्हें अनाप शनाप एंटी बायोटिक्स की डोज़ डे देते हैं जो कि मरीज़ को और अंत मे पूरे समाज के लिए नुकसानदायक होता है. चिकित्सक की सलाह के बजाय मामूली संक्रमण के लिए अपनी मर्जी से एंटीबायोटिक लेने के गंभीर खतरों के बारे में जनता को शिक्षित करने के बारे में अभी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है.

क्या करें

antibiotics-6.jpgकोशिश ये करें कि जहां तक सम्भव हो अपने जीवन में प्राकृतिक उपायों को खोजें और उन्हें प्रयोग में लाये. ऐसा सिर्फ आयुर्वेद द्वारा अभी भी सम्भव है. जैसे यदि शरीर में चोट लगने के बाद घाव हो जाएँ तो शहद को जीवाणु निवारण रूप में प्रयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया में शहद के उत्पादन में काम करने वाली मधुमक्खियां एन्जाइम ग्लूकोज ऑक्सीडेज को नेक्टर में बदल देती हैं। जब शहद को घाव पर लगाया जाता है तो इस एंजाइम के साथ हवा की ऑक्सीजन के संपर्क में आते ही बैक्टीरीसाइड हाइड्रोजन पर आक्साइड बनती है। इनके अलावा शहद के प्रयोग से सूजन और दर्द भी दूर हो जाते हैं। घावों या सूजन से आने वाली दुर्गंध भी दूर होती है। शहद की पट्टी बांधने से मरे हुए ऊतकों की कोशिकाओं के स्थान पर नई कोशिकाएं पनप आती हैं। इस प्रकार मधु से घाव तो भरते ही हैं और उनके निशान भी नहीं रहते।

 

मेरा ऐसा मानना है कि antibiotics का उपयोग तभी करना चाहिए जब सामान्य उपचार निष्फल साबित हो चुके हों और तत्काल इलाज़ की ज़रूरत हो. आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की खोज एंटीबायोटिक को प्रशिक्षित चिकित्सक की देखरेख में ही उपयोग करें; अपने आप नहीं. सामान्य बीमारियों और जीवाणुओं से होने वाली बीमारियों से लड़ने के लिए जैविक और प्राकृतिक उपलब्ध संसाधनों के प्रयोग को बढावा दें जिससे शरीर नयी नयी बीमारियों का घर न बने और जीवाणुओं में प्रतिरोधात्मक क्षमता उत्पन्न नहीं हो.

जनहित में ये जानकारी शेयर करें . 

 

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः  

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् 

 

  शेष अगली पोस्ट में…..

प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा में,

आपका अपना,

डॉ.स्वास्तिक 

चिकित्सा अधिकारी

आयुष विभाग उत्तराखंड शासन )

(निःशुल्क चिकित्सा परामर्शजन स्वास्थ्य के लिए सुझावों तथा अन्य मुद्दों के लिए लेखक से drswastikjain@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है )

 

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